राजस्थान बीजेपी के भीतर उठता तूफ़ान : दिल्ली से लेकर जयपुर तक बड़े बदलाव की आहट
राजस्थान की राजनीति इन दिनों मानो गहरे समंदर की तरह है—ऊपरी सतह पर शांति, लेकिन भीतर लहरों का जबरदस्त उफान। भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के सत्ता और संगठन, दोनों ही ढांचों में बड़े बदलाव की आहट महसूस की जा रही है। यह आहट इतनी तेज़ है कि जयपुर से लेकर दिल्ली तक नेताओं की बढ़ती सक्रियता इसे और स्पष्ट करती है। बताया जा रहा है कि दशहरे पर संघ के शताब्दी समारोह तक बदलाव को टाला गया था।
मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा के दिल्ली दौरे अब सिर्फ़ शिष्टाचार नहीं माने जा रहे, बल्कि सियासी समीकरणों की बिसात का हिस्सा लगने लगे हैं। दूसरी ओर, पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की बढ़ती सक्रियता और उनके बदलते तेवर राजनीतिक गलियारों में नई चर्चाओं को जन्म दे रहे हैं। राजे का आत्मविश्वास और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनकी मंच पर हुई मुलाकात, मानो राजस्थान की सियासत में नई पटकथा की भूमिका लिख रही हो। वसुंधरा राजे को भी सक्रिय राजनीति में लाने की खबरें हैं और उन्हें जल्दी ही कोई बड़ी जिम्मेदारी केंद्र या राज्य में दी जा सकती है।
बीजेपी की ताक़त हमेशा उसके संगठन और अनुशासन में मानी जाती है। मगर आज सवाल यह है कि राजस्थान में संगठन और सत्ता की धुरी किसके हाथ में रहेगी। मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा आत्मविश्वास से भले काम कर रहे हों, लेकिन पार्टी की गुप्त बैठकों और नेताओं की यात्राओं ने साफ़ कर दिया है कि सब कुछ वैसा स्थिर नहीं है जैसा दिखता है।
पूर्व प्रदेशाध्यक्ष सतीश पूनिया की अचानक बढ़ी सक्रियता और लगातार हो रहे दौरे इस बात के संकेत हैं कि संगठन की राजनीति फिर से तेज़ी पकड़ रही है। यह सक्रियता कहीं न कहीं सत्ता के लिए नए दावेदारों की मौजूदगी को रेखांकित करती है।
यह हलचल सिर्फ़ राजस्थान तक सीमित नहीं है। बीजेपी में राष्ट्रीय अध्यक्ष का अब तक न चुना जाना भी बड़ी राजनीतिक बेचैनी की वजह है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बीच सहमति न बनने की चर्चाएं, उम्र सीमा से जुड़ी आंतरिक बहस और उत्तराखंड-हरियाणा जैसे अन्य राज्यों में भी नेतृत्व परिवर्तन की चर्चाएं, सब मिलकर असमंजस का माहौल बना रही हैं। राजस्थान इस व्यापक उथल-पुथल का एक अहम केंद्र बन गया है।
राजस्थान की जनता इन राजनीतिक हलचलों को ध्यान से देख रही है। आम लोग मानो उस तूफान का इंतज़ार कर रहे हैं, जिसकी आहट धीरे-धीरे साफ़ सुनाई देने लगी है। वहीं, पार्टी कार्यकर्ता भी स्थिति को भांपकर सजग हैं। कार्यकर्ताओं का मनोबल और उनकी निष्ठा किस ओर झुकेगी, यह आने वाले दिनों की राजनीति तय करेगी।
लेकिन इन सबके बीच सबसे दिलचस्प नज़ारा चापलूसी की राजनीति का है—जहां कुछ लोग हवा का रुख़ समझकर अपने-अपने पाले बदलने की तैयारी में हैं। यही राजनीति की सबसे कड़वी सच्चाई है: जब तूफान आता है तो पत्ते ही नहीं, पूरी शाखाएं हिल जाती हैं।
